अंग्रेजी भाषा के हम तो,
खाने लगे निवाले हैं
खान-पान-परिधान विदेशी,
फिर भी हिन्दी वाले हैं
अपनी गठरी कभी न खोली,
उनके थाल खँगाल रहे
अपनी माता को दुत्कारा,
उनकी माता पाल रहे
कुछ काले अंग्रेज,
देश के बने हुए रखवाले हैं
वसुन्धरा-वन-खनिज और,
गो-गंगा को भी लील रहे
कृत्रिम मँहगाई फैलाकर,
जनता का तन छील रहे
खादी की केंचुलिया पहने,
डसते विषधर काले हैं
इनकी कारा में भारत माँ,
रोती और बिलखती है
डरी और सहमी हिन्दी,
कोने में पड़ी सिसकती है
हिन्दी को अपनी बिन्दी के,
पड़े हुए अब लाले हैं
गाँधी तेरे बन्दर अब भी,
अन्धे-गूँगे-बहरे हैं
दूध-दही की रखवाली पर,
बिल्लों के अब पहरे हैं
मत पाकर धनवान बने,
अब सियासती मतवाले हैं |
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गुरुवार, 30 अगस्त 2018
गीत "अपनी हिन्दी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंबिडम्बना है खान-पान सब विदेशी अपना लिया है हमने लेकिन उनकी अच्छी आदतें नहीं सीख पाए हैं अभी तक
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत सुंदर प्रस्तूति,आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंखरी बात! बहुत सटीक दोहे,
जवाब देंहटाएंअंग्रेज गये पर अंग्रेजी और अंग्रेजीयत यहीं साहबों वाली बघ्घी और उडन खटौलो पर घुम रही है।
बहुत जानदार दोहे