उत्तराखण्ड का पर्व हरेला
हरेला मुख्यतः सावन मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। यह देवभूमि
उत्तराखण्ड का प्रमुख त्यौहार है। जिसका सम्बन्ध हरियाली से है और धरा पर
हरियाली पेड़-पौधों से आती है। हरेला अर्थात्- हमारी भूमि शस्य श्यामला रहे यह
तब ही होगी जब हम पेड़ पौधों का संरक्षण करेंगे और नये-नये पौधे लगायेंगे। वृक्षारोपण
के लिए बरसात का मौसम सबसे उपयुक्त होता है, विशेषतया सावन मास। इसीलिए उत्तराखण्ड
में हरेला धूम-धाम से मनाया जाता है। हरेला पर्व पर घर में हरेला पूजा जाता
है और एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाया जाता है। यह भी मान्यता है कि
इस पर्व पर किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय। पांच
दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और इस पेड़ के हमेशा जीवित रहने की कामना की
जाती है।
उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के लिए पूर्वजों ने जो तीज-त्यौहार और
सामान्य जीवन के जो नियम बनाये थे, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और
विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था। इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक
त्यौहार है-हरेला।
हरेला
उत्तराखंड की संस्कृति का अभिन्न अंग है। ये त्यौहार सामाजिक सोहार्द के साथ साथ
कृषि व मौसम से भी सम्बन्ध रखता है। उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म
और वर्षा। इसीलिए पहाड़ी
प्रदेश उत्तराखण्ड में हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है। 1-
1-
चैत्र मास में!
(प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को
काटा जाता है!)
2- श्रावण मास में
(सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में
बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है!)
3- आश्विन मास में!
(आश्विम मास में नवरात्र के पहले दिन
बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है!) लेकिन उत्तराखण्ड में श्रावण मास में
पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है! क्योंकि सावन मास शंकर भगवान
जी को विशेष प्रिय है। उत्तराखण्ड एक पर्वतीय प्रदेश है और पर्वतों पर भगवान
शंकर का वास माना जाता है। अतः उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला
का अधिक महत्व है!
सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा
पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों
आदि पाँच प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है।
नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन
इसे काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि
व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। 4 से 6 इंच
लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं।
हरेला अच्छी कृषि का सूचक है ओर इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलों को नुकसान न हो। हरेले के
साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही
फायदा होगा। कूर्मांञ्चली भाषा में हरेला को हरयाव भी कहते हैं। हरेला शब्द का
स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य
कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु
होने की सूचना देता है
हरेला उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण
त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण
मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या
पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के
त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच
दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और इस पेड़ को हमेशा जीवित रहने की कामना की
जाती है।
किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से देवस्थान (स्थानीय
ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है
और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं।
यह भी परम्परा है कि यदि हरेला के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये
तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक
हरेला बोया नहीं जाता है। यह एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस
दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जा सकता है।
इस दिन कुमाऊँनी
भाषा में गीत गाते हुए छोटों को आशीर्वाद दिया जाता है –
“जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस
हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल
में ह्यूं छन तक,
गंग
ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन
और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक
चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव
कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”
इस अवसर पर मेरे भी कुछ दोहे प्रस्तुत हैं-
सावन होता पाठकों, श्रवण-मनन
का मास।
बढ़े धर्म की बेल नित, हो
अधर्म का नाश।।
--
पर्व हरेला आ गया, लेकर
राखी-तीज।
घर-घर में बनते सभी, व्यञ्जन
बहुत लजीज।।
--
आते श्रावण मास में, उत्सव
औ’ त्यौहार।
पर्वों में ही निहित है, जीवन
का आधार।।
--
भक्तों की टोली चली, शंकर
जी के द्वार।
काँवड़ काँधे पर धरे, करते
जय-जयकार।।
--
गूँजा है परिवेश में, हर-हर-बम-बम
नाद।
श्रावण में सब कर रहे, शिव-शंकर
को याद।।
डॉ. रूप चन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
टनकपुर रोड, खटीमा
जिला ऊधमसिंह नगर
(उत्तराखण्ड)
सम्पर्क नम्बर-7906360576
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-08-2019) को "हरेला का त्यौहार" (चर्चा अंक- 3416) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत शानदार जानकारी युक्त लेख साथ ही अनुपम दोहे विषयानुरूप।
जवाब देंहटाएंप्रकृति और पर्यावरण के प्रति कितने सजग और संवेदनशील थे वे लोग ,हम उसे बहत कुछ सीख सकते हैं.
जवाब देंहटाएंSundar dohe. Ted, Reddit, Themeforest & Theverge profile
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जवाब देंहटाएंपर्व हरेला आ गया, लेकर राखी-तीज।
घर-घर में बनते सभी, व्यञ्जन बहुत लजीज।।
हरेला त्यौहार की आपको सपरिवार शुभकामनाएं एवं बधाई .
बढ़िया जानकारी.
जवाब देंहटाएंनवीन जानकारी बढ़िया सर
जवाब देंहटाएंमेरे लिए नई जानकारी,सचमुच भारत तीज और त्योहारों का देश हैं,सुंदर सृजन सर,सादर नमन
जवाब देंहटाएंअच्छी एवं रोचक जानकारी!
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