बहती अविरल भाव से, निर्मल जल की धार। सुन्दर सुमनों ने लिया, पानी में आकार।। -- मोती जैसी सुमन से, टपक रही है ओस। मन को महकाती महक, कर देती मदहोस।। -- हीरे जैसी चमक है, निखरा-निखरा गात। कितना सुन्दर लग रहा, झरता हुआ प्रपात।। -- नाविक बैठा सोचता, चप्पू लेकर साथ। अनुपम रचना कर रहा, सारे जग का नाथ।। -- खारे जल का पान कर, मोती देती सीप। आलोकित जग को करें, आसमान के दीप।। -- माया मालिक की नहीं, कोई पाया जान। विज्ञानी सब जगत के, हो जाते हैरान।। -- दाता सबका एक है, लेकिन नाम अनेक। चमत्कार को देखकर, है असमर्थ विवेक।। |
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सोमवार, 27 सितंबर 2021
दोहे "आसमान के दीप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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दाता सबका एक है, लेकिन नाम अनेक।
जवाब देंहटाएंचमत्कार को देखकर, है असमर्थ विवेक।।
बहुत अद्भुत पंक्तियाँ.. नमस्कार है आपको गुरुदेव
बहुत सुन्दर दोहा मान्यवर।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंदाता सबका एक है, लेकिन नाम अनेक।
जवाब देंहटाएंचमत्कार को देखकर, है असमर्थ विवेक।।
लाजवाब सृजन
वाह!!!
बहुत ही सुंदर सृजन सर।
जवाब देंहटाएंसादर