मेरी प्यारी जूली --
बात 1975 की है! मैं नया-नया बनबसा गाँव में आकर बसा था। किराये का मकान था और कुत्ता पालने का शौक भी मन में चर्राया हुआ था। इसलिए मैं अपने एक वन-गूजर मित्र के यहाँ गया और उसके यहाँ से भोटिया नस्ल का प्यारा सा पिल्ला ले आया। बहुत प्यार से इसे एक दिन रखा मगर मकान मलिक से मेरा यह शौक देखा न गया। मुझे वार्निंग मिल गई कि कुत्ता पालना है तो कोई दूसरा मकान देखो! अतः मन मार कर मैं इसे दूसरे दिन अपने गूजर मित्र को वापिस कर आया। अब तो मन में धुन सवार हो गई कि अपना ही मकान बनाऊँगा। उस समय जैसे तैसे पाँच हजार रुपये का इन्तजाम किया और बनबसा मे ही कैनाल रोड पर एक प्लॉट ले लिया। दो माह में दो कमरों का मकान भी बना लिया और उसके आगे की ओर अपना क्लीनिक बना लिया। उस समय बनबसा पशु चिकित्सालय में डॉ. ब्रह्मदत्त पशु चिकित्साधिकारी थे। उनसे मेरी दोस्ती हो गई थी। एक दिन जब मैं उनके घर गया तो देखा कि उनके यहाँ 3 पामेरियन नस्ल के पिल्ले खेल रहे थे। मैने उनसे अपने लिए एक पिल्ला माँगा तो उन्होंने कहा कि डॉ. साहब एक पेयर तो मैं अपने पास रखूँगा। इसके बाद एक पिल्ली बचती है इसे आप ले जाइए। मैंने अपने ओवरकोट की जेब में इस प्यारी सी पिलिया को रखा और अपने घर आ गया। छोटी नस्ल की यह पिलिया सबको बहुत पसन्द आई और इसका नाम जूली रखा गया। उन दिनों कुकिंग गैस नहीं थी इसलिए घर में चूल्हा ही जलता था। बनबसा में लकड़ियों की भी भरमार थी। जाड़े के दिनों में मैं चूल्हे के आगे बैठकर जूली को सौ-सौ बार उसे नमस्ते करना और 1-2-5-10-100 के नोट पहचानना बताता था। जूली बहुत तेज दिमाग की थी जिसके कारण उसने बहुत जल्दी ही सब कुछ याद कर लिया था। जूली को ग्लूकोज के बिस्कुट खाना बहुत पसंद था और यह मेरे प्रिया स्कूटर की बास्केट में बैठी रहती थी। बनबसा भारत नेपाल की सीमा पर बसा एक गाँव है। जहाँ से नेपाल की सीमा मात्र 4 कि.मी. है। उन दिनों नेपाल में जाने और वहाँ वाहन ले जाने के लिए कोई लिखा-पढ़ी या टैक्स नहीं लगता था। मैं रोगी देखने के ले प्रतिदिन ही नेपाल के एक दो-तीन गाँवों में जाता रहता था। एक दिन एक नेपाली मुझे बुलाने के लिए आया। वह पहले ही अपनी साइकिल से चल पड़ा था और नेपाल के गड्डा चौकी बार्डर पर में उसको मेरी प्रतीक्षा करनी थी। अब मैं उसके गाँव-बाँसखेड़ा के लिए चल पड़ा। जैसे ही शारदा बैराज पार किया रास्ते में एक काली गाय बहुत ही खूँख्वार बनकर मेरे स्कूटर की ओर बढ़ी। मुझे स्कूटर रोक देना पड़ा। इतने में तपाक से जूली बास्केट में से छलाँग लगा कर उस गाय के पीछे पड़ गई। वह बार-बार गाय की पूँछ पकड़ कर उसको काट लेती थी। अन्ततः गाय को भागना पड़ा। और मैं सुरक्षित गड्डाचौकी पहुँच गया। मुझे तो अनुमान भी न था कि मेरे स्कूटर की बास्केट में जूली बैठी है। इतने वफादार होते हैं यह बिन झोली के फकीर। जो मालिक की जान की रक्षा अपनी जान पर खेलकर भी हर हाल में करते हैं। कालान्तर में जूली ने 4 छोटे-छोटे पिल्लों को जन्म दिया। जिसमें से एक तो जन्म के बाद ही चल बसा। एक पेयर मेरे मित्र डॉ. दत्ता ने ले लिया और एक पिल्ला हमने अपने पास रख लिया। प्यार से उसका नाम पिल्लू रखा गया। यह हल्के ब्राउन रंग का था। जूली की तरह इसके बड़े बाल नहीं थे। इसको अधिक कुछ हमें सिखाना भी नहीं पड़ा। क्योंकि यह अपनी माँ को देख-देखकर खुद ही काफी कुछ सीख गया था। घर वालों को यह ज्यादा अच्छा नहीं लगता था क्योंकि यह अपनी माँ की तरह बड़े बालों वाला नहीं था। मेरी माता जी तो इसे बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थीं और इसे कूड़ा चुगने वाला कुत्ता बतातीं थीं! एक दिन एक मनीहार चूड़ी पहनाने के लिए बनबसा आया तो माता जी ने कहा- "भैया इस कुत्ते को अपने घर ले जा।" मनीहार ने कहा- "माता जी इसको चेन मे बाँधकर मुझे दे दो।" माता जी ने पिल्लू को चेन में बाँधकर मनीहार के हाथ में चेन थमा दी। जब तक माता जी पिल्लू को दिखाई देती रहीं तब तक तो पिल्लू कुछ नही बोला मगर जैसे ही मनीहार इसे लेकर चला तो पिल्लू ने उसे 2-3 जगह काट लिया। जैसे-तैसे वह पिल्लू की चेन छोड़कर चलता बना। जब पिल्लू 6 महीने का हा तो इसकी माँ जूली को जलोदर रोग हो गया और वह 2 महीने में चल बसी। कुछ दिनों तक तो पिल्लू बहुत उदास-परेशान रहा मगर अब यह पहले से ज्यादा समझदार हो गया था। उन दिनों मैंने एक बीघा का प्लॉट खटीमा में ले लिया था और इसको बनाने के ले काम शुरू कर दिया था। पिता जी खटीमा में ही रहने लगे थे। माता जी ने पिल्लू को भी पिता जी के साथ खटीमा भेज दिया था। सुबह एक बार 8 बजे मैं भी बनबसा से खटीमा का चक्कर लगा आता ता और राज-मिस्त्रियों को काम समझा आता था। पिल्लू मुझे देखकर बहुत खुश हो जाता था। जिस किसी दिन खटीमा के प्लॉट पर कोई नहीं होता था तो पिल्लू पूरी मुस्तैदी से सारे सामान की देखभाल करता था। सुबह को जब राज मिस्त्री काम पर आते थे तो क्या मजाल थी कि यह प्लॉट में घुस जाएँ। पिल्लू मोटी-मोटी बल्लियों को मुँह में दबा कर बैठ जाता और किसी को हाथ भी नहीं लगाने देता था। जब मैं या पिता जी आते थे तो यह सामान्य हो जाता था और राज-मजदूर अपने काम पर लग जाते थे। करीब तीन महीने बाद खटीमा में 3 दूकानें और रहने के लिए 3 कमरे तैयार हो गये थे। अतः हम लोग भी बनबसा से खटीमा में ही शिफ्ट हो गये थे। पिल्लू बाहर गेट के पास ही रहता था और हम लोग चैन की नींद सोते थे। उन दिनों बाहर का आँगन कच्चा ही था और उसमें ईंटें बिछी हुई थी। अतः गर्मियों में मेरे पिता जी बाहर आँगन में चारपाई डालकर सोते थे। पिल्लू उनकी चारपाई के नीचे ही पड़ा रहता था। मैं प्रतिदिन सुबह 4 बजे उठकर घूमने के लिए जाता था और पिल्लू मेरे साथ-साथ चल पड़ता था। एक दिन मैं जब उठकर घूमने के लिए जा रहा था तो देखा कि कि पिता जी की चारपाई से कुछ दूर एक साँप लहूलुहान मरा पड़ा था तो मुझे यह समझते हुए देर न लगी कि पिल्लू ने ही यह सब किया होगा। इस वफादार ने अपनी जान की परवाह न करते हुए साँप को मार डाला और मेरे पिता जी रक्षा की। ऐसे होते हैं ये बिन झोली के फकीर। मालिक के वफादार और सच्चे चौकीदार।। |
ऐसे होते हैं ये बिन झोली के फकीर।
जवाब देंहटाएंमालिक के वफादार और सच्चे चौकीदार।। रोचक संस्मरण!
बहुत प्यारा संस्मरण। सच में आज भी इन मूक जानवर से बड़ा वफादार कहीं नहीं मिलते हैं। आपने बहुत मुझे हमारी जूली की यादें ताज़ी करा दी। अभी हमारे पास रॉकी है, जिसकी एक कहानी है, कभी पोस्ट करुँगी। मायके में तो जर्मन शेफर्ड है, जिसे हम शेंकी कहते हैं. अभी पिछली बार उसने नौ बच्चे दिए थे और सभी मेल थे, अभी उसके फिर से तीन बच्चे हुए है। बच्चों को देखना उनके साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता है मन को
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंयादों की दहलीज पर सुंदर संस्मरण साथ ही पालतू डाॅगी की वफादारी और मालिकों से प्यार का सुंदर संदेश।
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