-- कल
क्या होगा क्या पता, नहीं किसी को भान। सब
अपने ही ढंग से, लगा रहे अनुमान।। -- पल
भर में बादल घिरें, पल में खिलती धूप। तय
करता भगवान है, कुदरत का प्रारूप।। -- मौसम
के विज्ञान पर, मतकर झूठ बखान। विधि
के अटल विधान को, कोई सका न जान।। -- गीतों
के परिवेश में, बहुत जरूरी टेक। माथा-पच्ची
कीजिए, रखकर साथ विवेक।। -- मन्दिर
में भगवान का, होता है अभिषेक। अपनी
लीला का वही, जगतनियन्ता एक।। -- गंगा-यमुना
बह रहीं, कलकल करतीं शोर। सूरज
की अरुणिम प्रभा, करती भाव विभोर।। -- मन
के हर्ष-विषाद पर, मत करना अफसोस। अधिक
समय टिकती नहीं, घास-पात पर ओस।। -- |
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शनिवार, 3 फ़रवरी 2024
दोहे "कुदरत का प्रारूप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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