-- नालों
का गन्दा पानी, आया गंगा की धार में। जीवन
का सुख-चैन खो गया, कचरे के अम्बार में।। -- जंगल
दूषित हुए हमारे, खेत हुए बंजर सारे, पन्नी-पॉलीथीन
बीनते, बच्चों के बचपन हारे, कपड़े
के थैले ले जाना, भूल गये हैं नर-नारी, तौल
पन्नियों में दे देते, आज हाट में व्यापारी, हाथ
झुलाते जाते हैं हम, नगर-गाँव बाजार में। जीवन
का सुख-चैन खो गया, कचरे के अम्बार में।। -- घटते
जाते खेत बाग-वन, बढ़ती जाती आबादी, हाड़-मांस
धुनते मेहनतकश, धनवानों को आजादी, कंकरीट
के दुर्ग उगे हैं, शस्य-श्यामला माटी में, फसलें
बौनी हुई आज. केसर-क्यारी की घाटी में, जहर
भरा है आज देश की, बढ़ती पैदावार में। जीवन
का सुख-चैन खो गया, कचरे के अम्बार में।। -- महँगाई
का दानव पोषित, मानवता दम तोड़ रही, अनुसूचित
जो शोषित-घोषित, उनके कान मरोड़ रही, ज्ञान
अधमरा-बेबस धरती, हँसती जाती लाचारी, शीतलता
सन्ताप बढ़ाती, अब चन्दा की उजियारी, उलझा
हुआ पड़ोसी अब भी, आपस की तकरार में। जीवन
का सुख-चैन खो गया, कचरे के अम्बार में।। -- कागज
के फूल जो सजे हैं, उनमें कहाँ सुगन्धी है, लिखते
हैं वो ही निबन्ध को, जिनकी आँखें अन्धी हैं, सुख
की सरिता में मैला जल, करें आचमन आज कहाँ, बोतल
में अब पानी बिकता, जीवन दूभर हुआ यहाँ, बालाओं
की बोली लगती, इस गन्दे संसार में। जीवन
का सुख-चैन खो गया, कचरे के अम्बार में।। -- |
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सोमवार, 19 फ़रवरी 2024
गीत "कचरे के अम्बार में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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