धरा के रंग के आगे। इन्हीं को देखकर सोये हुए, अनुभाव हैं जागे। चलाई कूचियाँ अपनी, सजाया कल्पनाओं को। लिए हैं रंग कुदरत से, बनाया अल्पनाओं को। बुनी चादर जुलाहों ने, लिए रंगीन से धागे। इन्हीं को देखकर सोये हुए, अनुभाव हैं जागे। उकेरे शब्द कवियों ने, किया साहित्य का संगम। पहाड़ों के शिखर से, हो रहा धाराओं का उदगम। लगा ऐसा कि जैसे, मिल गये मोती बिना माँगे। इन्हीं को देखकर सोये हुए, अनुभाव हैं जागे। |
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
"धरा के रंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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सुंदर सजे धरा के रंग!
जवाब देंहटाएंअनुभावों को मिली तरंग!!
अति सुन्दर |
जवाब देंहटाएंबधाईयाँ ||
सभी हैं रंग फीके से,
जवाब देंहटाएंधरा के रंग के आगे।..बहुत सुन्दर..बधाई
sahi frmaya jnab ne .akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंधरा के रंग निराले हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंअति मनभावन...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता. खूबसूरत भावाभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंआपकी दो पुस्तकें प्रकाशन की दहलीज़ तक पहुँच गयी हैं, यह जानकार बहुत उत्साहित हूँ उन्हें पढ़ने के लिये. प्रकाशित होने पर सूचना अवश्य दें.
बधाई और शुभकामनायें.
सुंदर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंoriganal colurs sir thanx
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना।
जवाब देंहटाएंdhara ke sundar rangon se saji rachna prastuti ke liye dhanyavaad..
जवाब देंहटाएंdharaa ke adbhut rango ke darshan karaane ke liye shukriyaa guru jii
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत बढि़या ।
जवाब देंहटाएंचलाई कूचियाँ अपनी,
जवाब देंहटाएंसजाया कल्पनाओं को।
लिए हैं रंग कुदरत से,
बनाया अल्पनाओं को।
अति सुन्दर...
behtarin rachna..sadar badhayee
जवाब देंहटाएंbahut sunder ..chitra bhi or kavita bhi ..aabhar !
जवाब देंहटाएंधरा के रंग से ही तो हर रंग है
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
धरा के रंग से ही तो हर रंग है
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
सादर बधाईयाँ सर....
जवाब देंहटाएं