तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है
नहीं अब वक़्त है, ईमानदारी का सचाई का
खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है
हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है
प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
दिखाने को लिखी, मोटे हरफ में बस इबारत है
हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर, ऊँची इमारत है
लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी
हमारी अंजुमन में तो, निग्हेंबानी नदारत है
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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014
"सियासत में तिज़ारत है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी लिखी रचना शनिवार 05 जुलाई 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअति यथार्थ की ऐसी रचनाएँ परिवर्तन ला सकती हैं !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना , आदरणीय धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआपकी इस रचना का लिंक शनिवार दिनांक - ५ . ७ . २०१४ को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर होगा , धन्यवाद !
सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंहुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
जवाब देंहटाएंवजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है
sach kaha aapne aaj to bharat ke yahi hal hain .very nice .thanks
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंप्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
जवाब देंहटाएंदिखाने को लिखी, मोटे हरफ में बस इबारत है
बहुत सुन्दर