(१)
आग से खेलना मत, जलाती है ये
अपनी औकात सबको, बताती है ये
सिर्फ ज़ज़्बात से बात बनती नहीं,
दिल्लगी दिललगी बन सताती है ये
(२)
श्वेत परिधान हैं, सादगी के लिए
सभ्यता है बनी, आदमी के लिए
दाग माथे का हो या हो पौशाक का
दाग़ तो दाग़ है ज़िन्दग़ी के लिए
(३)
सात रंगों सी सुहानी, फाग है ये ज़िन्दग़ी
दोस्ती की गन्ध देती, बाग़ है ये ज़िन्दग़ी
ज़िन्दग़ी में ग़लत सुर को, मत लगा देना कभी
प्रीत के अनुराग जैसा, राग है ये ज़िन्द़गी
|
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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015
"ज़िन्दग़ी के तीन मुक्तक" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (06.02.2015) को "चुनावी बिगुल" (चर्चा अंक-1881)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंएक उत्कृष्ट रचना। पढकर बहुत अच्छी लगी। http://natkhatkahani.blogspot.com
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your writing skills and thoughts are heart touching keep it up dear
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बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर मुक्तक ..
जवाब देंहटाएं