आँखें कभी छला करती हैं,
आँखे कभी खला करती हैं।
गैरों को अपना कर लेती,
जब ये आँख मिला करती हैं।।
--
दुर्बल पौधों को ही ज्यादा, पानी-खाद मिला करती है।
चालू शेरों पर ही अक्सर, ज्यादा दाद मिला
करती है।
सूखे पेड़ों पर बसन्त का, कोई असर नही होता
है,
यौवन ढल जाने पर सबकी गर्दन बहुत हिला करती है।।
--
तुम्हारी याद को लेकर, बड़ी ही दूर आये हैं।
लबों पर प्यास आयी तो, तुम्हारे जाम पाये हैं।
छिपाकर अपनी आँखों में तुम्हारा नूर लाये हैं,
लिखाकर दिल की कोटर में, तुम्हारा नाम
लाये हैं।
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रविवार, 1 फ़रवरी 2015
"तीन मुक्तक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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....बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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.
दुर्बल पौधों को ही ज्यादा, पानी-खाद मिला करती है।
चालू शेरों पर ही अक्सर, ज्यादा दाद मिला करती है।
...
.बहुत खूब.
बहुत सुंदर मुक्तक, सब के सब
जवाब देंहटाएंआँखें कभी छला करती हैं,
जवाब देंहटाएंआँखे कभी खला करती हैं।
गैरों को अपना कर लेती,
जब ये आँख मिला करती हैं।।
बहुत खूब।
लाजवाब रचना आपकी
जवाब देंहटाएंआज 08/ फरवरी /2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!