वफा और प्यार की बातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। तपन के बाद बरसातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं। मिलन होता जहाँ बिछड़ी हुई, कुछ आत्माओं का, चमकती वो हसीं रातें, किसे अच्छी नहीं लगतीं।। गुलो-गुलशन की बरबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। वतन की बढ़ती आबादी, हमें अच्छी नहीं लगती। जुल्म का सामना करने को, जिसको ढाल माना था- सितम करती वही खादी, हमें अच्छी नहीं लगती।। |
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बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
"दो मुक्तक-किसे अच्छी नहीं लगतीं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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sundar muktak hardik badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर मुक्तक.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव, सार्थक मुक्तक
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-02-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा -1887 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जुल्म का सामना करने को, जिसको ढाल माना था-
जवाब देंहटाएंसितम करती वही खादी, हमें अच्छी नहीं लगती।।
बहुत सुंदर ।