सूरज में चाहे कितने ही, सुख के
भरे उजाले हों।
लेकिन वो चन्दा जैसी, शीतलता
नहीं दिखायेगा।
अन्तर के अनुभावों में, कोमलता
नहीं चगायेगा।।
सूरज में है तपन, चाँद
में ठण्डक चन्दन जैसी है।
प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन-वन्दन
जैसी है।।
सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़
छोड़ उड़ जाते हैं।
चन्दा के आने पर, फिर
अपने घर वापिस आते हैं।।
सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा
देता है विश्राम।
निशा-काल में तन-मन को, मिल
जाता है पूरा आराम।।
निशाकाल में शशि को, सब ही
प्यार दिया करते हैं।
मैं “मयंक” हूँ, मेरी सब मनुहार
किया करते हैं।।
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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015
"चन्दा देता है विश्राम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा बुधवार को
जवाब देंहटाएंआज प्रियतम जीवनी में आ रहा है; चर्चा मंच 1900
पर भी है ।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएं' मैं “मयंक” हूँ, मेरी सब मनुहार किया करते हैं।।'
जवाब देंहटाएं'मयंक ' की वाणी से से शीतल विश्राम की आशा है न सभी को !
बहुत खूब..
जवाब देंहटाएंआज 28/फरवरी /2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बेहतरीन प्रस्तुति।
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