सुबह आयेगी
शाम ढलेगी
रात हो जायेगी
और फिर होगा
नया सवेरा
मिट जायेगा
धरा से अंधेरा
लेकिन...
मन के कोटर में
न कभी धूप आयेगी
और न कभी सवेरा होगा
अंधेरा था
और अंधेरा ही रहेगा
फिर भी..
क्यों करते हैं हम
ख़त्म न होने वाला
ये इन्तजार
सोचते हैं
शायद हो जाये
कोई चमत्कार
इसी अभिलाषा में
तो जी रहे हैं
और दवा के नाम पर
गरल के घूँट पी रहे हैं
नहीं रहा
आह! में असर
दुआएँ भी
हो गयीं हैं बेअसर
चाह तो है
पर राह नहीं है
जिस्म को
रूह की परवाह नहीं है
देह की
बुझ जाती है पिपासा
मगर अधूरी रहती है
आत्मा की अभिलाषा
यही तो
जीवन का चक्र है
इसीलिए
दुनिया वक्र है...!
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