मानव दानव बन बैठा है, जग के झंझावातों में।
दिन में डूब
गया है सूरज, चन्दा गुम है
रातों में।।
होड़ लगी आगे बढ़ने की, मची हुई आपा-धापी,
मुख में राम
बगल में चाकू, मनवा है कितना
पापी,
दिवस-रैन उलझा
रहता है, घातों में
प्रतिघातों में।
दिन में डूब
गया है सूरज, चन्दा गुम है
रातों में।।
जीने का अन्दाज जगत में, कितना नया निराला है,
ठोकर पर ठोकर
खाकर भी, खुद को नही
संभाला है,
ज्ञान-पुंज से
ध्यान हटाकर, लिपटा गन्दी
बातों में।
दिन में डूब
गया है सूरज, चन्दा गुम है
रातों में।।
मित्र, पड़ोसी, और भाई, भाई के शोणित का प्यासा,
भूल चुके हैं
सीधी-सादी, सम्बन्धों की
परिभाषा।
विष के पादप
उगे बाग में, जहर भरा है
नातों में।
दिन में डूब
गया है सूरज, चन्दा गुम है
रातों में।।
एक चमन में रहते-सहते, जटिल-कुटिल मतभेद हुए,
बाँट लिया
गुलशन को, लेकिन दूर न मन
के भेद हुए,
खेल रहे हैं
ग्राहक बन कर, दुष्ट-बणिक के
हाथों में।
दिन में डूब
गया है सूरज, चन्दा गुम है
रातों में।।
|
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गुरुवार, 30 जुलाई 2015
गीत "जग के झंझावातों में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (25-06-2021) को "पुरानी क़िताब के पन्नों-सी पीली पड़ी यादें" (चर्चा अंक- 4106 ) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
बेहतरीन प्रविष्टि
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंजीने का अन्दाज जगत में, कितना नया निराला है,
जवाब देंहटाएंठोकर पर ठोकर खाकर भी, खुद को नही संभाला है ।
बहुत ही बेहतरीन रचना ओर उसका सृजन ।
हर इक पंक्ति गहरा अर्थ लिए । सब मिलाकर रचना बेहद ख़ूबसूरत पेश की है आपने ।
सादर
मित्र, पड़ोसी, और भाई, भाई के शोणित का प्यासा,
जवाब देंहटाएंभूल चुके हैं सीधी-सादी, सम्बन्धों की परिभाषा।
विष के पादप उगे बाग में, जहर भरा है नातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
बेहतरीन सृजन....
प्रणाम शास्त्री जी, बहुत ही सुंदर पंक्तियां "मित्र, पड़ोसी, और भाई, भाई के शोणित का प्यासा,
जवाब देंहटाएंभूल चुके हैं सीधी-सादी, सम्बन्धों की परिभाषा।" ---वाह