गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
हमने छन्दों को अपनाया।
कल्पनाओं में डूबे जब भी,
सुख से नहीं सोए रातों को।
कम्प्यूटर पर अंकित करके,
कहा आपसे सब बातों को।।
जब मौसम ने ली अँगड़ाई,
हमने उसका गीत बनाया।
बासन्ती उपवन के हर
पत्ते-बूटे को मीत बनाया।।
आमों के बागों में आकर,
जब कोयल ने गान सुनाया।
तब हमने भी कोयलिया के
सुर में अपना शब्द मिलाया।।
मन आनन्दित हो जाता जब,
बच्चों की सुनकर किलकारी।
हमने भी बच्चा बनकर तब,
चहका दी नन्हीं फुलवारी।।
मनीषियों की सेवा करने का,
जब भी अवसर पा जाते।
साथ हमारे सब घर वाले,
मन में फूले नहीं समाते।।
इसीलिए तो आज हमारी,
खिलती बगिया है प्रतिपल।
उन सबका आशीष हमारे,
सुख-वैभव का है सम्बल।।
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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016
कविता "खिलती बगिया है प्रतिपल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंaapse milne bahut jaldi aaunga...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ।
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