बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
यदि अपने घर व्यंजन हैं, तो बाहर घी की थाली है,
भिक्षा भी मिलनी मुश्किल, यदि अपनी झोली खाली है,
गूढ़ वचन भी निर्धन का, जग को बचकाना लगता है।
बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
फूटी किस्मत हो तो, गम की भीड़ नजर आती है,
कालीनों को बोरों की, कब पीड़ नजर आती है,
कलियों को खिलते फूलों का रूप पुराना लगता है।
बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
धूप-छाँव जैसा, अच्छा और बुरा हाल आता है,
बारह मास गुजर जाने पर, नया साल आता है,
खुशियाँ घर में आयें तो, अच्छा मुस्काना लगता है।
बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-05-2018) को
जवाब देंहटाएं"रूप पुराना लगता है" (चर्चा अंक-2958)) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-05-2018) को
जवाब देंहटाएं"रूप पुराना लगता है" (चर्चा अंक-2958)) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सहजता के साथ कही गई बेहद सटीक बात ....
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