राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
गीत भी डरे हुए, ताल-लय उदास हैं.
पात भी झरे हुए, किन्तु शेष आस हैं,
दो नयन में पल रहा, नग़मग़ी सा ख्वाब है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
ज़िन्दगी है इक सफर, पथ नहीं सरल यहाँ,
मंजिलों को खोजता, पथिक यहाँ-कभी वहाँ,
रंग भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु नहीं फाग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
बाट जोहती रहीं, डोलियाँ सजी हुई,
हाथ की हथेलियों में, मेंहदी रची हुई,
हैं सिंगार साथ में, पर नहीं सुहाग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
इस अँधेरी रात में, जुगनुओं की भीड़ है,
अजनबी तलाशता, सिर्फ एक नीड़ है,
रौशनी के वास्ते, जल रहा च़िराग है।
राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।
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सोमवार, 28 मई 2018
गीत "किन्तु शेष आस हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-05-2018) को "किन्तु शेष आस हैं" (चर्चा अंक-2986) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-05-2018) को "किन्तु शेष आस हैं" (चर्चा अंक-2986) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुन्दर !
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