बाहर खाने में
नहीं, आता कोई स्वाद।
होटल में जाकर
सदा, होता धन बरबाद।।
फूली-फूली
रोटियाँ, सजनी रही बनाय।
बाट जोहती है
सदा, कब साजन घर आय।।
फूली रोटी देखकर,
होते सब अनुरक्त।
मगर काटते तो
नहीं, हँसी-खुशी से वक्त।।
घर के खाने में
भरा, घरवाली का प्यार।
सजनी खाने के
लिए, करती है मनुहार।।
बना रहे खुशहाल
ही, जीवन का परिवेश।
रोटी-रोजी के लिए,
जाते लोग विदेश।।
दौलत के बाजार
में, बिकते रोज रसूख।
रोटी की कम भूख
है, धन की ज्यादा भूख।।
रोटी सबका लक्ष्य
है, रोटी है तकदीर।
जग में रोटी के
बिना, चलता नहीं शरीर।।
खाकर माल हराम
का, करना मत आखेट।
श्रम से अर्जित
रोटियाँ, भरती सबका पेट।।
|
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मंगलवार, 15 मई 2018
दोहे "रोटी है तकदीर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर दोहे।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-05-2018) को "रोटी है तकदीर" (चर्चा अंक-2972) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सच धन की भूख कुछ ही बढ़ी है आजकल और बाहर का खाने का रिवाज, जो निश्चित ही हानिकारक है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना