मत-मजहब की जेल में, बन्दी हैं सब काज।।
भूख मिटाने के लिए, होता है आहार।
खान-पान में किन्तु अब, बना मजहब आधार।।
बैर-भाव के खेल में, गयी मनुजता हार।
बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार।।
केसर-क्यारी में बने, अब अपने ही गैर।
सेना के बल पर वहाँ, नजर आ रही खैर।।
झेलम का पानी वहाँ, बन बैठा मक्कार।
करके जिसका आचमन, लोग हुए गद्दार।।
कश्मीरी जिस देश का, खाते मोहनभोग।
किन्तु तिरंगे को वहाँ, जला रहे कुछ लोग।।
नहीं अछूती अब रही, हजरतबल दरगाह।
दहशतगर्दों को जहाँ, देते लोग पनाह।।
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सुधार की कोई गुंजाइश भी नहीं दिखाई देती, जैसे किसी को कोई चिंता ही नहीं है !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.05.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2966 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सचमुच गई मनुजता हार, सुंदर रचना 🙏🙏
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