चाहे चन्दा में कितने ही, धब्बे काले-काले हों।
सूरज में चाहे कितने ही, सुख के भरे उजाले हों।
लेकिन वो चन्दा जैसी, शीतलता नहीं दिखायेगा।
अन्तर के अनुभावों में, कोमलता नहीं चगायेगा।।
सूरज में है तपन, चाँद में ठण्डक चन्दन जैसी है।
प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन-वन्दन जैसी है।।
सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़ छोड़ उड़ जाते हैं।
चन्दा के आने पर, फिर अपने घर वापिस आते हैं।।
सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा देता है विश्राम।
निशा-काल में तन-मन को, मिल जाता है पूरा आराम।।
निशाकाल में शशि को, सब ही प्यार दिया करते हैं।
मैं 'मयंक' हूँ, मेरी सब मनुहार किया करते हैं।।
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रविवार, 24 फ़रवरी 2019
कविता "मैं 'मयंक' हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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