नहीं समझना ग़ज़ल को, लफ्जों का व्यापार।
ज़ज़्बातों की शायरी, करती दिल पर वार।।
बिना बनावट के जहाँ, होते हैं अल्फाज़,
अच्छे लगते वो सभी, प्यार भरे अशआर।
मतला-मक़्ता-क़ाफिया, हुए ग़ज़ल से दूर,
मातम के माहौल में, सजते बन्दनवार।
डूब रही है आजकल, उथले जल में नाव,
छूट गयी है हाथ से, केवट के पतवार।
अब कविता के साथ में, होता है अन्याय,
आज क़लम में है नहीं, वीरों की हुँकार।
शायर बनकर आ गये, अब तो सारे लोग,
कलियों-फूलों पर बहुत, होता अत्याचार।
कृत्रिमता से किसी का, नहीं दमकता “रूप”
चाटुकार-मक्कार अब, इज़्ज़त के ह़कदार।
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बहुत खूब.... ,हमेशा की तरह लाजबाब सर ,सादर नमस्कार
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