जब भी लड़ने के लिए,
लहरें हों तैयार। कस कर तब मैं थामता,
हाथों में पतवार।1। बैरी के सपने करें,
कैसे चकनाचूर। जब अपने हो सामने,
हो जाता मजबूर।2। साधन धन होता भले,
मगर नहीं है साध्य। हिरती-फिरती छाँव को,
मत समझो आराध्य।3। राज़ पासअब हो गया,
उतर गया है ताज। ऐसा घर कैसे चले,
जिसमें सब नाराज।4। दाँव-पेंच के सामने, हार
गये हैं सन्त। महा अघाड़ी का हुआ, चार
दिनों में अन्त।5। अब तो लड़ने के लिए,
लहरें हैं तैयार। छूट गयी मझधार में,
हाथों से पतवार।6। राजनीति के खेल में,
मेला हुआ उदास। कूटनीति अब बन गयी,
हास और परिहास।7। गठबन्धन के हो गये,
सपने चकनाचूर। अपनों के ही सामने,
सेना है मजबूर।8। लोकतान्त्रिक देश में,
हार गया जनतन्त्र। गूँज रहे हैं सदन में,
गुटबन्दी के मन्त्र।9। ताकत कितनी हो भले,
मगर नहीं है साध्य। परछाँई की छाँव को,
मत समझों आराध्य।10। राज़ उजागर तब हुआ,
चला गया जब राज। गद्दारी का बन गया, अब तो आम रिवाज।11। हार गया है झूठ से,
सच्चाई का अंश। एकबार फिर मीत ने,
दिया मीत को दंश।12। |
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शुक्रवार, 24 जून 2022
दोहे "गुटबन्दी के मन्त्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह वाह वाह!सुंदर और सामयिक
जवाब देंहटाएंहमारे दूध के धुले दल-बदलुओं के बारे में इतनी बुरी राय रखना घोर पाप है.
जवाब देंहटाएंदो-चार दिन लोगबाग उन्हें उनकी अवसरवादिता पर गालियाँ देंगे पर 100-200 करोड़ की कमाई हो जाने के बाद वो उसके एक छोटे से हिस्से से एक बड़ा सा मन्दिर बनवा देंगे फिर समाज और इतिहास उन्हें महात्मा का दर्जा देगा.
वाह! बढ़िया कहा सर।
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