जमाना है तिजारत का, तिज़ारत ही तिज़ारत है तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है सभी वादे इरादे हो गये
बेमायने अब तो भरी नस-नस में लोगों की
सियासत में शरारत है -- ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है -- हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं हमारा तो वतन लगता, दलालों का ही भारत है -- प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है -- डुबोते हो जहाँ अपने
किनारे पर लगी नौका वजीरों की हुई खोटी जमाने
में वजारत है -- हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है -- लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है -- |
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मंगलवार, 28 जून 2022
ग़ज़ल "सियासत में शरारत है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर सटीक चित्रण ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंलगी अंधों की महफ़िल है, औ कानों की सदारत है - बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत बढ़िया कहा सर 👌
जवाब देंहटाएंयथार्थ पर प्रहार करती उम्दा अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंक्या बात कही है। बहुत बढ़िया। 👍🏻👍🏻
जवाब देंहटाएंवाह बहुत बढ़िया !!
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