जिसमें रंग हजार हों, वही प्यार का रोग। अब तो मतलब के लिए, प्यार जताते लोग।। -- अपने निश्चय पर अडिग, रहता जो इनसान। मंजिल को पाना उसे, है बिल्कुल आसान।। -- सरल शब्द का कीजिए, कविता में उपयोग। जटिल काव्य को आजकल, नहीं पढ़ेंगे लोग।। -- जो दिल से निकले वही, कहलाता है भाव। उन भावों का काव्य में, अब हो रहा अभाव।। -- नवयुग में साहित्य का, बहुत बुरा है हाल। नेह-नीर के बिन सभी, सूख रहे हैं ताल।। -- मुखपोथी के खेत में, बैठे दावेदार। लेखक ऐसे उग रहे, जैसे खर-पतवार।। कुछ कविता के चोर हैं, कुछ हैं दोहाखोर। जालजगतपर आज तो, मथनी है कमजोर।। -- माणिक-मोती खोजने, चले थामकर डोर। अब चुल्लूभर नीर में, डूबे गोताखोर।। -- |
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शनिवार, 4 जून 2022
दोहे "लेखक ऐसे उग रहे, जैसे खर-पतवार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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