कुछ ने पूरी पंक्ति उड़ाई, कुछ ने थीम चुराई मेरी। मैं तो रोज नया लिखता हूँ रोज बजाता हूँ रणभेरी। -- चोरों के नहीं महल बनेंगे, इधर-उधर ही वो डोलेंगे। उनको माँ कैसे वर देगी, उनके शब्द नहीं बोलेंगे। -- उनका जीना भी क्या जीना, सिसक-सिसककर जो है जिन्दा। ऐसे पामर नीच-निशाचर, होते नहीं कभी शरमिन्दा। -- अक्षय-गागर मुझको देकर, माता ने उपकार किया है। चोर-उचक्कों से देवी ने, शब्दकोश को छीन लिया है। -- मैं उनका स्वागत करता हूँ, जो ऐसे गीतों को रचते। मुखड़ा मेरा जिनको भाया, किन्तु सत्य कहने से बचते। -- छन्द-काव्य को तरस रहे वो, चूर हुए उनके सपने हैं। कैसे कह दूँ उनको बैरी, वो सब तो मेरे अपने हैं। -- समझदार के लिए इशारा, इस तुकबन्दी में करता हूँ। मैं दिन-प्रतिदिन लिखता जाता, केवल ईश्वर से डरता हूँ। -- |
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शनिवार, 1 अप्रैल 2023
कविता "चोर पुराण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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