जाने कैसे भूल हो गई, अन्तर्मन को पढ़ने में। कल्पनाएँ निर्मूल हो गईं, पाषाणों को गढ़ने में। -- हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से, राहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में। -- उठती-गिरती लहरों से, नौका को सदा बचाया है, भरी जवानी धूल हो गई, तूफानों से लड़ने में। -- आगत और अनागत का स्वागत मैं दिल से करता हूँ, नदियाँ सूखी गूल हो गई, अरमानों को मढ़ने में। -- “रूप” कभी भी रास न आया, नादानों को फूलों का, बातें ऊल-जलूल हो गईं, गुलदानों को जड़ने में। -- |
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना । निवेदन है कि विगत कई महीनों से मेरे ब्लॉग पोस्ट पर ब्लागर साथियों के कमेंट नहीं आ रहे हैं। चर्चा मंच पर भी मेरे ब्लॉग के लिंक नहीं आ रहे हैं। कृपया अपना स्नेह बनाए रखने का कष्ट करें
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