अन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो, झील-तालाबों की दुनिया और है। बन्द कमरों में न तुम, हर-वक्त यूँ बैठा करो, बाग की ताजा फिजाँ कुछ और है। स्वर्ण-पिंजड़े में कभी शुक को सुकूँ मिलता नही, सैर करने का मज़ा कुछ और है। जुल्म से और जोर से अपना नहीं बनता कोई प्यार करने की रज़ा कुछ और है। गाँव में रहकर रिवाजों-रस्म को मत तोड़ना, प्रीत की होती सज़ा कुछ और है। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
---|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
"प्रीत की होती सजा कुछ और है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
-
सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंअन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो,
झील-तालाबों की दुनिया और है।
सुन्दर विचारणीय रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार, ज़बरदस्त और लाजवाब रचना लिखा है आपने !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंजुल्म से और जोर से अपना नहीं बनता कोई
जवाब देंहटाएंप्यार करने की रज़ा कुछ और है।
बहुत सही ...भावपूर्ण रचना ..!!
...वाह..वाह...वाह...
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंएक और सधी हुई अभिव्यक्ति...काश हमारे नेतागण और राष्ट्र के दिशा निर्देशक गण इस शेर को समझ पाते
बन्द कमरों में न तुम, हर-वक्त यूँ बैठा करो,
बाग की ताजा फिजाँ कुछ और है।
सुन्दर!!
अन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो,
जवाब देंहटाएंझील-तालाबों की दुनिया और है।
बन्द कमरों में न तुम, हर-वक्त यूँ बैठा करो,
बाग की ताजा फिजाँ कुछ और है।
वाह ! शास्त्री जी आज तो आप कुछ रंगीन मिजाज नजर आ रहे है !
जय हो आपकी.........
जवाब देंहटाएंआपकी रचना का आनन्द ही कुछ और है
kahte to aur bhi hai bahut kuch
जवाब देंहटाएंmagar aapka andaz-e-bayan kuch aur hai
bahut hi sundar aur umda likha hai ...........badhayi
जय हो शास्त्री जी जी हो !
जवाब देंहटाएंअन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो...
जवाब देंहटाएंजज्बातों की गहरी उडान है .......... सुन्दर रचना है शास्त्री जी .........
वाह वाह शास्त्री जी जबाब नही आप की इन पंकित्यो का, बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वाह वाह बहुत खूब..क्या बात कही है.
जवाब देंहटाएंसच में कूपमण्डूक क्या जाने समन्दर का विस्तार!
जवाब देंहटाएंस्वर्ण-पिंजड़े में कभी शुक को सुकूँ मिलता नही,
जवाब देंहटाएंसैर करने का मज़ा कुछ और है। लाजवाब रचना
सुन्दर रचना और चित्र लेकिन डॉक्टर साहब आप्का ब्लॉग बहुत देर मे खुलता है ..शायद टेम्प्लेट की वज़ह से ।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारा छंद रचा है आपने।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
sunder rachna.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(18-7-21) को "प्रीत की होती सजा कुछ और है" (चर्चा अंक- 4129) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसटीक संदेश देती ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंजुल्म से और जोर से अपना नहीं बनता कोई
जवाब देंहटाएंप्यार करने की रज़ा कुछ और है।
वाह!!!
लाजवाब।