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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011
"मेला गंगास्नान-झनकइया-खटीमा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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सचित्र मनभावन प्रस्तुति के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंख़ूबसूरत चित्रों के साथ सुसज्जित मनमोहक प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंमेले की सैर करवा दी आपने ....आभार
जवाब देंहटाएंhumne bhi aapke saath mela ghoom liya garam garam jalebi dekhkar to muh me paani aa gaya.sachitra kaavya shaily me bahut sundar varnan.
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता.... मेले का सुन्दर भ्रमण....
जवाब देंहटाएंअद्भुत चित्रावली ..आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंacchi tasviro ke sath acchi prastuti...
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रो के साथ मनभावन प्रस्तुति के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंवाह, बचपन याद आ गया।
जवाब देंहटाएंअरे, वाह!
जवाब देंहटाएंपूरा मेला तो आपने यहीं दिखा दिया!
बहुत सुंदर चित्रों से सजी बचपन कि याद दिलाती स्वादिष्ट पोस्ट :-) शुक्रिया
जवाब देंहटाएंमेले के यह चित्र तो लगे बहुत अभिराम।
जवाब देंहटाएंकाव्यकला के'रूप'को मेरा नमन प्रणाम।
कमाल है शास्त्री जी!!
जवाब देंहटाएंसुन मेले का नाम ही ,मन पुलकित हो जाय
जवाब देंहटाएंघर बैठे ही , आपने मेला दिया घुमाय.
जंगल में भी पहुँच गया चाऊमिन है आज
और कहाँ तक फैलेगा , फास्ट-फूड का राज.
बौने जोकर दिख रहे , गुमसुम और उदास
बीस रुपै की टिकट सुन ,कोई न आया पास.
सब्जी के संग धान का,विनिमय अब भी होय
इस युग में यह देख के , दिया कबीरा रोय.
मेले का आनन्द उठा लिया....
जवाब देंहटाएंमेले का आनंद चित्रों व काव्य छंदों की अनूठी छटा। वाह! बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंएक मेला हमने भी देखा था। एक गीत लिखा था। चार लाइन देखिए...
हमने देखे गज़ब नजारे मेले में
लाए थे वो चाँद-सितारे ठेले में
भूखे बेच रहे थे दाना
प्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सबने बेच रहे थे ग्यानी
बच्चों ने बेचे गुब्बारे मेले में।
लाए थे वो चाँद-सितारे ठेले में।
वाह!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना से आपने ,दिल को लिया है मोह
मनोहारी चित्रों की झांकी में,हम तो गए हैं खो
अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,शास्त्री जी.
बहुत अच्छी पोस्ट है सर!
जवाब देंहटाएंसादर
यहाँ तो सब कुछ है... वाह!!
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट सर...
सादर बधाई...