उन दिनों मेरे दोनों पुत्र बहुत छोटे थे। तब अक्सर पिकनिक का कार्यक्रम
बन जाता था। कभी हम लोग पहाड़ पर श्यामलाताल चले जाते थे, कभी माता पूर्णागिरि देवी के मन्दिर में
माथा टेकने चले जाते थे और कभी नेपाल के शहर महेन्द्रनगर में घूम आते थे। यहाँ
से 20-25 किमी की दूरी
पर गुरू नानक साहिब का विशाल गुरूद्वारा "नानकमत्ता साहिब" भी है
कभी-कभी वहाँ भी मत्था टेक आते थे।
अब तो नानकमत्ता में 5 कमरों का एक घर भी बना लिया है। जब तक पिता
जी समर्थ थे तब तक इसमें तपस्थली विद्यापीठ के नाम से एक छोटे बालकों का
विद्यालय भी वो चलाते थे। तब से यह क्रम अभी तक जारी है। अक्सर
रविवार के दिन तो हम लोग कहीं न कहीं घूमने जाते ही हैं।
अब एक पौत्र और एक पौत्री हो गये हैं तो
अक्सर पिकनिक के कार्यक्रम बन ही जाते हैं।
लगभग 10 वर्ष पूर्व की बात है। एक दिन मन में यह विचार आया कि इस बार कार
से नेपाल की सैर करने नही जायेंगे। कार सिर्फ बनबसा तक ही ले जायेंगे। उसके बाद
घोड़े ताँगे से नेपाल जायेंगे।
इतवार का दिन था। हम लोग कार से बनबसा तक गये और वहाँ से 400रुपये में आने जाने के लिए घोड़ा ताँगा कर
लिया और चारों ओर का नजारा देखते हुए नेपाल के महेन्द्रनगर जा पहुँचे। वहाँ पर घने पेड़ों के बीच सिद्धबाबा का एक प्राचीन मन्दिर है। हमने वहाँ पर प्रसाद चढ़ा कर भोजन किया। फिर थोड़ा आराम करके घोड़े-ताँगें मे
सवार हो गये। इस अलौकिक सवारी में बैठ कर खास तौर से
बच्चे बहुत खुश थे।
घोड़ा-ताँगा अपनी मस्त चाल से चलता जा रहा था परन्तु उसका मालिक घोड़े को
चाबुक मार ही देता था। मैंने उसे एक-दो बार टोका ता वह बोला-
‘‘बाबू जी! घोड़े को बीच-बीच में चाबुक लगानी
ही पड़ती है।’’
यह घोड़ा-वान इस घोड़े को अक्सर बारातों में भी घुड़-चढ़ी के लिए भी इस्तेमाल
करता था और उसकी पीठ पर काठी बड़ी जोर से कस कर बाँधता था। संयोगवश् एक बार मैंने इसे घोड़े को इतनी जोर से काठी बाँधते हुए देख लिया
था।
मैंने इससे कहा भी कि भाई इतनी जोर से घोड़े को कस कर काठी मात बाँधा करो।
इस पर उसने अपना तर्क दिया-
‘‘बाबू जी! घोड़े का तंग और आदमी का अंग कस का
ही बाँधा जाता है।’’
बात आई गयी हो गयी। एक दिन मैं बनबसा गया तो पता लगा कि
सुलेमान तांगेवाले की कमर की हड्डी क्रेक हो गयी हैं। पुरानी जान-पहचान होने के
कारण मैं उसे देखने के लिए उसके घर चला गया। वहाँ जाकर मैंने देखा कि सुलेमान भाई की पीठ में काठीनुमा एक बेल्ट कस कर
बँधी हुई है।
मुझे देख कर उसकी आँखों में आँसू आ गये वह बोला- ‘‘बाबू जी! करनी भरनी यहीं पर हैं।
बाबू जी! आपने ठीक ही कहा था।
अब मुझे अहसास होता है कि
काठी का दर्द क्या होता है?
कभी
मैं घोड़े को काठी कस कर बाँधता था। आज मुझे कस का काठी बाँध दी गयी है।
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-१२ -२०१९ ) को "जानवर तो मूक होता है" (चर्चा अंक ३५३६) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत ही सुंदर सीख देती रचना ,कर्म फल भुगतने ही पड़ते हैं। सादर नमन सर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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