घर-आँगन-कानन में जाकर मैं,
अपनी तुकबन्दी करता हूँ।
अनुभावों का अनुगायक हूँ,
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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है नहीं मापनी का गुनिया,
अब तो अतुकान्त लिखे दुनिया।
असमंजस में हैं सब बालक,
क्या याद करे इनको मुनिया।
मैं बन करके पागल कोकिल,
खाली पन्नों को भरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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आयुक्त फिरें मारे-मारे,
उन्मुक्त हुए बन्धन सारे।
जीवन उपवन के शब्दों में,
अब तुप्त हो गये बंजारे।
पतझर की मारी बगिया में,
मैं सुमन सुगन्धित झरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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दे पन्त-निराला की मिसाल,
चौकीदारी करते विडाल।
निर्मल कैसे अब नीर रहे,
कचरा गंगा में रहे डाल।
मिलते हैं मोती बगुलों को,
मैं घास-पात को चरता हूँ।
मैं कवि लिखने से डरता हूँ।।
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गुरुवार, 7 नवंबर 2019
गीत "खाली पन्नों को भरता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मिलते हैं मोती बगुलों को,
जवाब देंहटाएंमैं घास-पात को चरता हूँ।
एक सच्चे कवि की मनोव्यथा कितने मार्मिक शब्दों में प्रकट हुई है !!! सादर प्रणाम।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-11-2019) को "भागती सी जिन्दगी" (चर्चा अंक- 3513)" पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
-अनीता लागुरी 'अनु'
मयंक जी, तुकांत हो अथवा अतुकांत, कविता में बनावटीपन नहीं होना चाहिए. आपकी कविताएँ सहज भी होती हैं सोद्येश्यपूर्ण भी.
जवाब देंहटाएंबहुतसुन्दर भाव लिए अत्यंत सुन्दर सृजन आदरणीय । सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
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