गड़ा है मील का पत्थर, हमें बढ़ना सिखाता है खड़ा है मुद्दतों से खुद, हमें चलना बताता है न कुछ मन में उमंगें हैं, न जीवन की तरंगें हैं दिलों के हौसले फिर भी, हमेशा ही बढ़ाता है गुज़रता हूँ अचानक जब, कभी इन रास्तों से मैं कोई भूला हुए मंजर, मुझे फिर याद आता है नहीं होगा मिलन धरती-गगन का, जानते हैं सब खुली आँखों का सपना, नित नयी चाहत जगाता है पिपासा से भरा जीवन, नहीं संतृप्त होता है छलावा “रूप” का, उन्माद का ही जन्मदाता है |
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रविवार, 6 मार्च 2022
ग़ज़ल "कोई भूला हुए मंजर, मुझे फिर याद आता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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पिपासा से भरा जीवन, नहीं संतृप्त होता है
जवाब देंहटाएंछलावा “रूप” का, उन्माद का ही जन्मदाता है
शानदार गुरूजी
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 07 मार्च 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (07 मार्च 2022 ) को 'गांव भागते शहर चुरा कर' (चर्चा अंक 4362) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सादर प्रणाम
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन।
जवाब देंहटाएं