चहक उठे हैं खेत-बगीचे, धरती ने सिंगार सजाया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने पीताम्बर पाया।। निर्मल नदी-सरोवर लगते, कोयल-कागा
पंख खुजाते, मधुमक्खी गुंजार सुनातीं, फूलों पर
भँवरे मण्डराते, पतझड़ के पश्चात धरा पर, पेड़ों ने
नव पल्लव पाया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने
पीताम्बर पाया।। मौसम प्रतिपल बदल रहा है, टेसू ने
ली है अँगड़ाई, कलरव करते सुबह चरिन्दे, महक लुटाती
है अमराई, कलियाँ कुसुम बनी उपवन में, पौधों
पर नव-यौवन आया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने
पीताम्बर पाया।। खेतों में सोना बिखरा है, माटी का
कण-कण निखरा है, सुबह सुहानी-शाम सिँदूरी, दुल्हन
जैसी सजी धरा है, मोहक रूप बसन्ती छाया, वासन्ती परिधान
सजाया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने
पीताम्बर पाया।। अब तो पर्वत अमल-धवल है, झरनों की धारा निर्मल है, भाँति-भाँति के उपहारों से, जीवन
में बढ़ती हलचल है, नूतन छन्द बना कवियों ने, कुदरत की
महिमा को गाया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने पीताम्बर पाया।। बौराया गेहूँ का बिरुआ, सुख देती है धूप सुहानी, घटती जाती आसमान से, कुहरे की अब तो मनमानी, मलयानिल से चलीं बयारें, मस्त पवन ने 'रूप' दिखाया। बिछे हुए हैं हरे गलीचे, सरसों ने पीताम्बर पाया।। |
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बुधवार, 11 जनवरी 2023
गीत "मस्त पवन ने रूप दिखाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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