फिर वही
मौसम सुहाना आ गया है
प्यार
करने का जमाना आ गया है
मुहब्बत
का असर होने लगा अब
पत्थरों
को गीत गाना आ गया है
मुद्दतों
से मौन में जो जी रहा था
सुमन को
बातें बनाना आ गया है
साज और
संगीत की सौगात पाकर
बेसुरों
को सुर लगाना आ गया है
आज फिर कलियाँ
हैं फूल जैसी
अब चमन
को खिलखिलाना आ गया है
जब हुई
रौशन शमा बाज़ार में
तन
पतिंगों को जलाना आ गया है
दिलजले
भी दिल्लगी करने लगे हैं
“रूप” का
ज़लवा पुराना आ गया है
|
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मंगलवार, 1 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-पत्थरों को गीत गाना आ गया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंक्या कहने आदरणीय बहुत ही खूब वाह
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
मैंने भी पढ़ा...
हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
दिनांक 03/04/ 2014 की
नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
हलचल में सभी का स्वागत है...
वाह...बहुत ख़ूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंआज फिर कलियाँ हैं फूल जैसी
जवाब देंहटाएंअब चमन को खिलखिलाना आ गया है..बहुत खूब..