फिर वही
मौसम सुहाना आ गया है
प्यार
करने का जमाना आ गया है
मुहब्बत
का असर होने लगा अब
पत्थरों
को गीत गाना आ गया है
मुद्दतों
से मौन में जो जी रहा था
सुमन को
बातें बनाना आ गया है
साज और
संगीत की सौगात पाकर
बेसुरों
को सुर लगाना आ गया है
आज फिर कलियाँ
हैं फूल जैसी
अब चमन
को खिलखिलाना आ गया है
जब हुई
रौशन शमा बाज़ार में
तन
पतिंगों को जलाना आ गया है
दिलजले
भी दिल्लगी करने लगे हैं
“रूप” का
ज़लवा पुराना आ गया है
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वाह बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंक्या कहने आदरणीय बहुत ही खूब वाह
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
मैंने भी पढ़ा...
हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
दिनांक 03/04/ 2014 की
नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
हलचल में सभी का स्वागत है...
आपको ये बताते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि आपका ब्लॉग ब्लॉग - चिठ्ठा - "सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग्स और चिट्ठे" ( एलेक्सा रैंक के अनुसार / 31 मार्च, 2014 तक ) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएँ,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंवाह...बहुत ख़ूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंआज फिर कलियाँ हैं फूल जैसी
जवाब देंहटाएंअब चमन को खिलखिलाना आ गया है..बहुत खूब..
आपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (13-04-2014) को ''जागरूक हैं, फिर इतना ज़ुल्म क्यों ?'' (चर्चा मंच-1581) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर…