मासूम निगाहों में, खामोश तराना है
मदहोश परिन्दों को, अब नीड़ बनाना है
सूखे
हुए पेड़ों पर, फिर आ गये हैं पत्ते
अब
प्यार के दीपक को, हर दिल में जलाना है
भटके
हुए राही को, पथ मिल गया है सीधा
इस
पर कदम बढ़ा कर, अब लक्ष्य को पाना है
कुछ
करके दिखाने के, अरमान दिलों में हैं
उजड़ी
हुई दुनिया को, अब फिर से बसाना है
हिंसा
की की चल रहीं हैं, चारों तरफ हवाएँ
आतंक
की आँधी को, अब दूर भगाना है
इस मादरे-वतन
को, मक़्तल की जरूरत क्या
अब
पाठ अहिंसा का, मक़तब में पढ़ाना है
फिरकापरस्त
होना, मज़हब नहीं सिखाता
इंसानियत
का हमको, अब “रूप” दिखाना है
|
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रविवार, 13 अप्रैल 2014
"ग़ज़ल-अब नीड़ बनाना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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बहुत बढिया..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंहम सबका विश्वास जगे अब।
जवाब देंहटाएंबढ़िया ग़ज़ल कही है सभी अशआर सुन्दर :
जवाब देंहटाएंमासूम निगाहों में, खामोश तराना है
मदहोश परिन्दों को, अब नीड़ बनाना है
सूखे हुए पेड़ों पर, फिर आ गये हैं पत्ते
अब प्यार के दीपक को, हर दिल में जलाना है...
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