आप आकर मिले नहीं
होते
प्यार के सिलसिले
नहीं होते
बात होती न ग़र
मुहब्बत की
कोई शिकवे-गिले
नहीं होते
ग़र न मिलती नदी
समन्दर से
मौज़ के मरहले नही
होते
घर में होती
चहल-पहल कैसे
शाख़ पर घोंसले
नहीं होते
सुख की बारिश अगर
नही आती
गुल चमन में खिले
नहीं होते
दिल में उल्फ़त अगर
नही होती
आज ये हौसले नहीं
होते
“रूप” में गर कशिश
नहीं होती
इश्क के काफिले नहीं
होते
|
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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014
"ग़ज़ल-प्यार के सिलसिले नहीं होते" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
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सुंदर गजल !
जवाब देंहटाएंBehad khubsurat bhaawo ki gazal...lajawaab prastuti !!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल !
जवाब देंहटाएंग़र न मिलती नदी समन्दर से
मौज़ के मरहले नही होते
बढ़िया ग़ज़ल कही है भाई साहब :
जवाब देंहटाएंबात होती न ग़र मुहब्बत की
कोई शिकवे-गिले नहीं होते
सेतु सारे मन को भाएं ,जब जब रविकर आएं
जवाब देंहटाएंहम भी अच्छे भले होते ,
गर तुमसे यूं मिले होते।
हम भी आज अच्छे भले होते ,
जवाब देंहटाएंगर आप न यूं मिले होते।
कल 30/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
वाह ... कमाल की ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
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