गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
हमने छन्दों को अपनाया।
कल्पनाओं में डूबे जब भी,
सुख से नहीं सोए रातों को।
कम्प्यूटर पर अंकित करके,
कहा आपसे सब बातों को।।
जब मौसम ने ली अँगड़ाई,
हमने उसका गीत बनाया।
वासन्ती उपवन के हर
पत्ते-बूटे को मीत बनाया।।
आमों के बागों में आकर,
जब कोयल ने गान सुनाया।
तब हमने भी कोयलिया के
सुर में अपना शब्द मिलाया।।
मन आनन्दित हो जाता जब,
बच्चों की सुनकर किलकारी।
हमने भी बच्चा बनकर तब,
चहका दी नन्हीं फुलवारी।।
मनीषियों की सेवा करने का,
जब भी अवसर पा जाते।
साथ हमारे सब घर वाले,
मन में फूले नहीं समाते।।
इसीलिए तो आज हमारी,
खिलती बगिया है प्रतिपल।
उन सबका आशीष हमारे,
सुख-वैभव का है सम्बल।। |
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रविवार, 12 अक्तूबर 2014
"आज हमारी खिलती बगिया" ( डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंदिनांक 13/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
वाह बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंBehad khubsurat prastuti ***
जवाब देंहटाएंगीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
जवाब देंहटाएंगूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
हमने छन्दों को अपनाया...
उच्चारण
बहुत सुन्दर है।
बहुत सुन्दर है।
भाव भी अर्थ भी और अपने परिवेश के प्रति लगाव और विश्वाश भी।