खिजाओं से बहारों
की, कभी उम्मीद मत करना
घटाओं में
सितारों की, कभी उम्मीद मत करना
भले हों दूर वे
घर से, मगर अपने तो अपने हैं
गैरों से सहारों
की, कभी उम्मीद मत करना
हुए गद्दीनशीं जो
हैं, लुटा भरपूर दौलत को
यहाँ उनसे सुधारों
की, कभी उम्मीद मत करना
गरज से ही डराते
हैं, बरसते जो नहीं बादल
फुहारों की यहाँ
उनसे, कभी उम्मीद मत करना
मजहब के नाम पर
सबको, पढ़ाते पाठ नफरत का
अमन की उन इदारों
से, कभी उम्मीद मत करना
फिदा केशर की
क्यारी पर, यहाँ बहरूपिये कितने
विदेशी चाटुकारों
पर, कभी उम्मीद मत करना
मठों में भ्रष्ट
सन्यासी, जहाँ हो 'रूप' के लोभी
वहाँ अच्छे
विचारों की, कभी उम्मीद मत करना
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मंगलवार, 23 जुलाई 2019
ग़ज़ल "कभी उम्मीद मत करना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति