छलक जाते हैं अब आँसू, ग़ज़ल को गुनगुनाने में। नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।। -- नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें, प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में। -- हुए बेडौल तन चादर. सिमट कर हो गई छोटी, शजर मशगूल हैं अपने, फलों को आज खाने में। -- दरकते जा रहे अब तो, हमारी नींव के पत्थर, चिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में। -- लगे हैं पुण्य पर पहरे, दया के बन्द दरवाजे, दुआएँ कैद हैं अब तो, गुनाहों की दुकानों में। -- जिधर देखो उधर ही 'रूप' का, सामान बिकता है, रईसों के यहाँ तो, इल्म रहता पायदानों में। -- |
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शनिवार, 3 सितंबर 2022
ग़ज़ल "जालिम जमाने में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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मर्मस्पर्शी ग़ज़ल। सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहमारे पवित्र बाबाजियों पर ऐसा निर्मम प्रहार?
जवाब देंहटाएंभला उनके ढोंग का और उनके पाखण्ड का खुलासा करने की क्या आवश्यकता है?
गांधी जी के तीन बंदरों से आँख, कान और मुंह बंद रखना सीखिए और आनंद से जीवन व्यतीत कीजिए.
उम्दा सृजन।
जवाब देंहटाएंतंज और व्यंग्य के साथ।