भरत-भूमि में हिन्दी
की, आशाएँ लगती धूमिल
हैं। हिन्दी की बरबादी
में, खुद हिन्दी वाले
शामिल हैं।। राहों में काँटे
बिखरे हैं, कैसे अपनी मंजिल
पायें। वेदनाओं का ज्वार
प्रबल है, कैसे अपने गीत
सुनायें। स्वस्थ हास-परिहास
नहीं है, मक्कारों की महफिल
हैं। हिन्दी की बरबादी
में, खुद हिन्दी वाले
शामिल हैं।। सूख गये हैं सुधा
सिन्धु अब, हार गये हैं भाषा
साधक। लुप्त हो गयी आज
व्याकरण, भंग हो गये सारे
मानक। हिन्दी का पथ नहीं
सरल है। शब्द मौन हैं, भाव
सुप्त हैं, दोनों पलकें बोझिल
हैं। हिन्दी की बरबादी
में, खुद हिन्दी वाले
शामिल हैं।। छूट गयी पतवार हाथ
से, कैसे होगा पार सरोवर? बिना कर्म के कैसे
चमके, अपना फूटा आज मुकद्दर। हिन्दी वाले ही
हिन्दी के लगते अब तो कातिल
हैं। हिन्दी की बरबादी में, खुद हिन्दी वाले शामिल हैं।। युग बदला जीवन भी
बदला, बदल गया परिवेश
हमारा। किन्तु नहीं अब तक भी
बदला, दकियानूसी देश हमारा। आज हमारी हिन्दी में
क्यों नुक्ता-चीनी दाखिल
हैं। हिन्दी की बरबादी में, खुद हिन्दी वाले शामिल हैं।। |
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शुक्रवार, 16 सितंबर 2022
गीत "हिन्दी का पथ नहीं सरल है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सही कहा आ. मयंक जी! यह सुन्दर रचना काश हिन्दी भाषा के अल्पज्ञानी हिन्दी-भाषियों व छद्म हिन्दीविरोधियों तक पहुँच पाती।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर कहा सर।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणान
सटीक रचना।
जवाब देंहटाएंभावों में दर्द छलक रहा है हिन्दी के लिए।