अब कैसे दो शब्द लिखूँ, कैसे उनमें अब भाव भरूँ? तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ? मौसम की विपरीत चाल है, धरा रक्त से हुई लाल है, दस्तक देता कुटिल काल है, प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है, बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ? तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ? पंछी को परवाज चाहिए, बेकारों को काज चाहिए, नेता जी को राज चाहिए, कल को सुधरा आज चाहिए, उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ? तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ? भाँग कूप में पड़ी हुई है, लाज धूप में खड़ी हुई है, आज सत्यता डरी हुई है, तोंद झूठ की बढ़ी हुई है, रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ? तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ? |
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गुरुवार, 8 सितंबर 2022
गीत "कैसे सरल स्वभाव करूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 09 सितंबर 2022 को 'पंछी को परवाज चाहिए, बेकारों को काज चाहिए' (चर्चा अंक 4547) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
पंछी को परवाज चाहिए,
जवाब देंहटाएंबेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
वाह!!!
सामयिक विडम्बना पर आधारित बहुत ही नायाब सृजन ।
बहुत बहुत सुन्दर और सराहनीय गीत । सच में खुश हो गया। बधाई ।
जवाब देंहटाएंविडंबना की सुन्दर विवेचना.
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