नीलगगन पर कुहरा छाया, दोपहरी में शाम हो गई।
शीतलता के कारण सारी, दुनियादारी जाम हो गई।।
गैस जलानेवाली ग़ायब, लकड़ी गायब बाज़ारों से, कैसे जलें अलाव? यही तो पूछ रहे हैं सरकारों से, जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई। जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई। खुदरा व्यापारी जायेंगे, परदेशी व्यापार करेंगे, आम आदमी को लूटेंगे, अपनी झोली खूब भरेंगे, दलदल में फँस गया सफीना, धारा तो गुमनाम हो गई। जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई। सस्ती हुई ज़िन्द्गगी कितनी, बढ़ी मौत पर मँहगाई है, संसद में बैठे बिल्लों ने, दूध-मलाई ही खाई है, शीला की लुट गई जवानी, मुन्नी भी बदनाम हो गई। जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई। |
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सोमवार, 10 दिसंबर 2012
"दोपहरी में शाम हो गई" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदरता से बाँधा है शीत को शब्दों में ...
नमस्कार शास्त्री जी ...
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
वाह ... बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां....
जवाब देंहटाएं:-)
बढिया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बेहतर लेखन !!!
जवाब देंहटाएंशीला और मुन्नी की सुनता कौन है
जवाब देंहटाएंसुंदर लेखन,बेहतरीन ****^^^^****सस्ती हुई ज़िन्द्गगी कितनी, बढ़ी मौत पर मँहगाई है,
हटाएंसंसद में बैठे बिल्लों ने, दूध-मलाई ही खाई है,
शीला की लुट गई जवानी, मुन्नी भी बदनाम हो गई।
जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई।
ठिठुरन बढ़ी है, सब बदला बदला लग रहा है।
जवाब देंहटाएंनीलगगन पर कुहरा छाया, दोपहरी में शाम हो गई।
जवाब देंहटाएंशीतलता के कारण सारी, दुनियादारी जाम हो गई।।
बहुत उम्दा,लाजबाब रचना,,
यथार्थ चित्रण।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंखुदरा व्यापारी जायेंगे, परदेशी व्यापार करेंगे,
आम आदमी को लूटेंगे, अपनी झोली खूब भरेंगे,
दलदल में फँस गया सफीना, धारा तो गुमनाम हो गई।
जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई।
नंगई मुलायम माया की देखो कितनी आम हो गई .
चारों ओर यही आलम है!
जवाब देंहटाएंयथार्थ चित्रण।
जवाब देंहटाएंखुदरा व्यापारी जायेंगे, परदेशी व्यापार करेंगे,
आम आदमी को लूटेंगे, अपनी झोली खूब भरेंगे,
दलदल में फँस गया सफीना, धारा तो गुमनाम हो गई।
जीवन को ढोनेवाली अब, काया भी नाकाम हो गई।