आज का है पता और न कल का पता।
पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हमने दुर्गम डगर पर, बढ़ाये कदम, हँसते-हँसते मिले, हर मुसीबत से हम, हमको इन्सानियत के न छल का पता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हमने तूफान में रख दिया है दिया, आँसुओं को सुधा सा समझकर पिया, भव के सागर के कोई न तल का पता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। हम तो जिससे मिले, खोलकर दिल मिले, किन्तु वो जब मिले, फासलों से मिले, किस कदर बढ़ गई, व्यक्ति की व्यस्तता। पाप और पुण्य के भी न फल का पता।। |
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गुरुवार, 11 जुलाई 2013
"इन्सानियत के न छल का पता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक कहा, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सटीक और सुन्दर आदरणीय !!
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक रचना.. आभर..
जवाब देंहटाएंपता नहीं कुछ, जिये जा रहे,
जवाब देंहटाएंघँूट समय के पिये जा रहे।
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।।
जवाब देंहटाएंBhut khoob sastri g bahut achcha likha
जवाब देंहटाएंआपकी यह बेहतरीन रचना कल दिनांक 12.07.2013 को http://blogprasaran.blogspot.in/ पर लिंक की गयी है। कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंहम तो जिससे मिले, खोलकर दिल मिले,
किन्तु वो जब मिले, फासलों से मिले,
किस कदर बढ़ गई, व्यक्ति की व्यस्तता।
पाप और पुण्य के भी न फल का पता।।
bahut बहुत ऊंचे पाए की रचना है भाव और अर्थ सौन्दर्य लिए .ॐ शान्ति .शुक्रिया हमें चर्चा मंच में बिठाने के लिए .
ॐ शान्ति
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआओ!
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंवाह ... बेहतरीन
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