करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे।
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम, घूमती वादियों में, हया बे-शरम, शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे, फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे, गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। हो रहा सब जगह, धन से धन का मिलन, रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन, नाम है आचमन, जाम ढलने लगे। करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।। |
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मंगलवार, 30 जुलाई 2013
"जाम ढलने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर जाम हैं
जवाब देंहटाएंदिखते जरूर आम हैं
खास जाम होते हैं जो
दिखते कहाँ सरे आम हैं !
उफ़ ये शराब
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंप्रश्न चिन्ह खड़े करती रचना.
सादर
अनु
नाम है आचमन, जाम ढलने लगे।
जवाब देंहटाएंकरते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।
सही कहा आपने.....
आचमन..............।
जवाब देंहटाएंbahut khoob, har pankti jordar
जवाब देंहटाएंmadmast rachna hai ye to.
जवाब देंहटाएंबढ़िया है गुरु जी-
जवाब देंहटाएंआभार-
सच कहती सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सत्य.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सच कहा आपने..
जवाब देंहटाएं