आम, जामुन, नीम सारे, जल गये हैं आग में
कुछ कँटीले पेड़ अब तो, रह गये हैं बाग में
सुमन तो मुरझा गये, अब सिर्फ काँटे ही बचे,
प्रीत पहले सी नहीं, अब तो रही अनुराग में
बढ़ रहे हैं आज जंगल, कंकरीटों के यहाँ
खेत घटते जा रहे हैं, उर्वरा भूभाग में
हाथ-हाथी का मुलायम सा शिकंजा बढ़ गया
कमल कैसे अब खिले, जलहीन-दीन तड़ाग में
कंटकों की सेज पर, सुख की तमन्ना क्या करें
उम्र सारी कट गयी अब, सिर्फ भागम-भाग में
ताल जब बेताल हो तो, सुर भला कैसे सधे
शास्त्र का संगीत गायब, शोर वाले राग में
हो गयी अन्धेर नगरी और चौपट राज है
लूटते आनन्द काने, विश्व के अनुभाग में
बाँटती ठण्डक सभी को, चन्द्रमा की चाँदनी
किन्तु मैला हो रहा है, “रूप” अब तो दाग में
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013
"ग़ज़ल-खेत घटते जा रहे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबढ़ने लगा फेसबुक से फेस टू फेस रूबरू का दौर
बहुत सुंदर गजल !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल ,बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंsamsaamiyk rachna.
जवाब देंहटाएंशानदार गज़ल ! बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबढ़ रहे हैं आज जंगल, कंकरीटों के यहाँ
जवाब देंहटाएंखेत घटते जा रहे हैं, उर्वरा भूभाग में...
पर्यावरण सचेत प्रस्तुति।
हो गयी अन्धेर नगरी और चौपट राज है
जवाब देंहटाएंलूटते आनन्द काने, विश्व के अनुभाग में
वाह राजनीतिक व्यंग्य विडंबन भी।
कार्टून:- मोटापा बड़े काम की चीज़ है
जवाब देंहटाएंकाजल कुमार के कार्टून
बड़े बड़े स्केम हैं इस संग्रहालय में बेटा।
बेहतरीन ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएं