भटक रहा है मारा-मारा।
गधा हो गया है बे-चारा।।
जनसेवक ने लील लिया है,
बेचारों का भोजन सारा।
चरागाह अब नहीं बचे हैं,
पाये कहाँ से अब वो चारा।
हुई घिनौनी आज सियासत,
किस्मत में केवल है नारा।
कंकरीट के जंगल हैं अब,
हरी घास ने किया किनारा।
कूड़ा-करकट मैला खाता,
भूख हो गयी है आवारा।
भूसी में से तेल निकलता,
कठिन हो गया आज गुज़ारा।
"रूप" हमारा चाहे जो हो,
किन्तु गधे सा काम हमारा।
|
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शनिवार, 30 नवंबर 2013
"ग़ज़ल-गधा हो गया है बे-चारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बढ़िया और सत्य |
जवाब देंहटाएंआज के युग में मनुष्य गधा तो हो ही गया है हर समय हम्माली में लगा रहता है |
sargarbhit rachna
जवाब देंहटाएंबहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सटीक रचना ....!
जवाब देंहटाएं==================
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
कंकरीट के जंगल हैं अब,
जवाब देंहटाएंहरी घास ने किया किनारा।
बिल्कुल सत्य.
"रूप" हमारा चाहे जो हो,
जवाब देंहटाएंकिन्तु गधे सा काम हमारा।
सदनों में बहुमत है हमारा।
चारे से अब नहीं गुज़ारा
कोयला हमको खूब है भाता।
देश -विदेश की सैर कराता।
sundar hai ati sundar rchnaan
सुन्दर है अति सुन्दर रचना ,
गरदभ(गर्दभ ) राज सबक सिखलाता ,
प्रजातंत्र का मर्म निभाता।
जवाब देंहटाएंअच्छी है भइ अच्छी चर्चा ,
गर्दभ हमको है समझाता।
अरे लालू जैसे कितने देखे ,
जवाब देंहटाएंनहीं किसी की कोई साख ,
हम असली नंदन बैसाख।
भैया हैम असली नंदन बैसाख।
दिन भर करते रहते काम ,
ईश्वर की भक्ति निष्काम।
नहीं किसी से हमको काम।
खटें रात दिन हम बदनाम।
बहुत बढ़िया -
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
जवाब देंहटाएं"रूप" हमारा चाहे जो हो,
किन्तु गधे सा काम हमारा।...क्या बात है शास्त्रीजी...क्या छक्का मारा है ...
Sab jaante hain ki chaara gaya to gaya kahaan ;-)
जवाब देंहटाएंन जाने क्यूँ कृष्णचंदर कि लिखी रचना 'एक गधे कि आत्मकथा' याद आ गयी...
जवाब देंहटाएं