बस्तियों में आ गये हैं, छोड़कर वन की डगर
आदमी
से बन गये हैं, जंगलों के जानवर
सादगी
की आदतें, कैसे सलामत अब रहें
झूठ
के वातावरण में, पा गये हैं सब हुनर
सिर
छिपाने को कहाँ, ये मूक प्राणी जायेंगे,
बीहड़ों
में बन गये हैं, कंकरीटों के नगर
बिलबिलाते
भूख से, ये कब तलक भूखे रहें
खा
रहे ताज़ा निवाला, आदमी से छीनकर
साथ
रहना है
तो फिर, निर्भीक ही बन कर रहें
खौफ़
के साये में होगी, ज़िन्दग़ी कैसे बसर
सिर
छिपाने के लिए तो, आशियाना चाहिए
आदमी
ने जानवर को, कर दिया है दर-ब-दर
बहरूपियों
के देश में, चेहरा छिपायें हैं सभी
मार
डालेंगे दरिन्दे, “रूप” असली जानकर
|
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सोमवार, 10 मार्च 2014
"ग़ज़ल-आदमी ही बन गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंचहुँ कोत छल छंद छाए, ए काल बयस ए देस ।
घट घट में रावन बसे, भरे राम के भेस ।१३२४।
भावार्थ : -- इस समय इस देश की परिस्थितियां ऐसी है, कि चारों दिशाओं में छलकपट ही छाया है । देह देह में रावण का वास है भेष उसने प्रभु श्रीराम का भरा है ॥
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ, सत्य बताती।
जवाब देंहटाएं''आदमी से बन गये हैं, जंगलों के जानवर''
जवाब देंहटाएंवाह वाह आदरणीय क्या उम्दा बात कही है। बहुत खूब
''बहरूपियों के देश में, चेहरा छिपायें हैं सभी
मार डालेंगे दरिन्दे, “रूप” असली जानकर''
समाज की असलियत सामने रख दी इस ग़ज़ल में आपने। बहुत बहुत बधाई इस लाज़वाब ग़ज़ल के लिए।
सादर
सार्थकता लिये सशक्त अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबस्तियों में आ गये हैं, छोड़कर वन की डगर
जवाब देंहटाएंआदमी से बन गये हैं, जंगलों के जानवर
सादगी की आदतें, कैसे सलामत अब रहें
झूठ के वातावरण में, पा गये हैं सब हुनर...
उच्चारण
बहुत सशक्त प्रस्तुति मनोहर झरबेरियों की चुभन लिए