सज्जनता का हो गया, दिन में सूरज अस्त।
शठ करते हठयोग को, होकर कुण्ठाग्रस्त।।
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नित्य-नियम से था दिया, जिनको भी
गुण-ज्ञान।
वो चोरी में लिप्त हो, बन बैठे शैतान।।
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भूल गये कर्तव्य को, पण्डित और इमाम।
पका-पकाया खा रहे, सारे नमक हराम।।
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रोज बदलते जा रहे, चोला और जबान।
बन्दीग्रह में बन्द है, लोगों का ईमान।।
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मंजिल पाने के लिए, राह चुनी आसान।
लगे बाँटने ज्ञान को, दुनिया को नादान।।
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बिगड़ गया है आचरण, बिगड़ा जीवन ढंग।
निगल रहे हैं महक को, एला और लवंग।।
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लूट रहे हैं शान से, कथित सुखनवर कोष।
छलनी को दिखते नहीं, खुद अपने ही दोष।।
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उजड़ गयी है वाटिका, दूषित हुआ समीर।
कालजयी साहित्य का, हरण हो रहा चीर।।
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बुधवार, 18 सितंबर 2019
दोहे "एला और लवंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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छलनी को दिखते नहीं, खुद अपने ही दोष............
जवाब देंहटाएंऔर इन्हीं की आजकल भरमार है !