लक्ष्य तो मिला नहीं, उसूल नापता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया। स्वप्न के वितान में, मन गगन में खो गया। शूल की धसान में, बबूल छाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी। अन्धकार छा गया, दिन में शाम हो गयी, और मैं मकान में, गूल पाटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- रत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में। कुछ अभी मिला नहीं, पत्थरों के वेश में। किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चन्द्रिका ‘मयंक’ की, तन-बदन जला रही। कुटिल ग्रहों की चाल भी, कुचक्र को चला रही। और मैं मचान की, झूल काटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- |
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गुरुवार, 5 नवंबर 2020
गीत "उसूल नापता रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०७-११-२०२०) को 'मन की वीथियां' (चर्चा अंक- ३८७८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
वाह।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं–प्रातः वन्दन!
जवाब देंहटाएंरत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में।
कुछ अभी मिला नहीं, पत्थरों के वेश में।
किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।
–वाहः... रोमांचक भावाभिव्यक्ति
चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी।
जवाब देंहटाएंअन्धकार छा गया, दिन में शाम हो गयी,
और मैं मकान में, गूल पाटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
वाह...
आदरणीय! बेहद सुंदर गीत
साधुवाद 🙏🍁🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
बेहद सुन्दर गीत....आभार...
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