सूख रही है भूमि से, गीत-ग़ज़ल की धार। धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।। -- कैसे देंगे गन्ध को, ये काग़ज़ के फूल। फूल नोच माली चला, बचे नुकीले शूल।। मन में तो है कुटिलता, अधरों पर मुस्कान। अपनेपन की हो यहाँ, कैसे अब पहचान।। पहले जैसी हैं कहाँ, अब निश्छल मनुहार। धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।१। -- बेटों ने परदेश में, जमा किया धन-माल। सोन-चिरैया इसलिए, हुई बहुत कंगाल। खाते कुत्ते-बिल्लियाँ, बिस्कुट-बटर-पनीर। लेकिन बूढ़े पिता की, आँखों में है नीर।। शादी करके पुत्र ने, बाँट लिया घर-बार। धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।२। -- सरगम के सुर कर रहे, आपस में उत्पात। कदम-कदम पर हो रहा, घात और प्रतिघात।। पाल-पोषकर कर दिया, जिसको युवा बलिष्ठ। निष्ठा सारी छोड़ कर, करता पुत्र अनिष्ठ।। बेटा जीवित बाप से, माँग रहा अधिकार। धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।३। -- लोग बुन रहे देश में, मकड़ी जैसा जाल। अब दूषित परिवेश में, जीना हुआ मुहाल।। नज़र न आता है कहीं, अब नैसर्गिक 'रूप'। कृत्रिमता के दौर में, मिले कहाँ से धूप।। मानवता का आज तो, खिसक रहा आधार। धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।४। -- |
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सोमवार, 11 अप्रैल 2022
दोहा गीत "बेटा जीवित बाप से, माँग रहा अधिकार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-4-22) को "ऐसे थे निराला के राम और राम की शक्तिपूजा" (चर्चा अंक 4398) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन।
जवाब देंहटाएंसही कहा लोगों में प्यार घट रहा है धीरे-धीरे
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक सामयिक एवं सार्थक सृजन ।
ह्रास होते मानवीय गुणों पर सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएं