कौंध गई बे-मौसम, चपला नीलगगन में। अनहोनी की आशंका, गहराई मन में।। तेजविहीन हुए तारे, चन्दा शरमाया, गन्धहीन हो गया सुमन, उपवन अकुलाया, नीरसता-नीरवता सी छाई जीवन में। अनहोनी की आशंका, गहराई मन में।। रंग हुए बदरंग, अल्पना डरी हुई है, भाव हुए हैं भंग, कल्पना मरी हुई है, चंचलता सहमी सी, घबराई आँगन में। अनहोनी की आशंका, गहराई मन में।। खलिहानों में पड़े हुए, गेहूँ सकुचाए, दीन-किसानों के, चमके चेहरे मुरझाए, सोनचिरैया-कोयल अकुलाई कानन में। अनहोनी की आशंका, गहराई मन में।। वही समझ सकता है, जिसकी है यह माया, कहीं गुनगुनी धूप, कहीं है शीतल छाया, राधा की अँखियाँ, पथराई वृन्दावन में। अनहोनी की आशंका, गहराई मन में।। |
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शनिवार, 30 अप्रैल 2022
गीत "बे-मौसम चपला नीलगगन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (1-5-22) को "अब राम को बनवास अयोध्या न दे कभी"(चर्चा अंक-4417) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सामयिक चिंतनपूर्ण सृजन ।
जवाब देंहटाएं'वही समझ सकता है, जिसकी है यह माया,
जवाब देंहटाएंकहीं गुनगुनी धूप, कहीं है शीतल छाया'---सत्य कथन
वाह! सही है जिसकी माया वो ही जाने ....
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा आदरणीय ।
जवाब देंहटाएं